पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने कुलपति प्रो. राघवेंद्र प्रसाद तिवारी के संरक्षण में ‘सप्त सिंधु: भारतीय सभ्यता की जननी’ विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सफलतापूर्वक आयोजन किया। इस कार्यक्रम में पंजाब के जाने-माने समाजसेवी और विद्वान श्री नरेंद्र जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुए, जबकि पीजीआई चंडीगढ़ के डॉ. वरिंदर गर्ग ने मुख्य वक्ता के रूप में विचार प्रस्तुत किए।
खबर खास, बठिंडा:
पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने कुलपति प्रो. राघवेंद्र प्रसाद तिवारी के संरक्षण में ‘सप्त सिंधु: भारतीय सभ्यता की जननी’ विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सफलतापूर्वक आयोजन किया। इस कार्यक्रम में पंजाब के जाने-माने समाजसेवी और विद्वान श्री नरेंद्र जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुए, जबकि पीजीआई चंडीगढ़ के डॉ. वरिंदर गर्ग ने मुख्य वक्ता के रूप में विचार प्रस्तुत किए।
अपने संबोधन में नरेंद्र जी ने सप्त सिंधु क्षेत्र को भारतीय संस्कृति की पवित्र जननी बताया और इसकी समावेशी प्रकृति पर प्रकाश डाला, जो सभी समुदायों के साथ-साथ सभी के विचारों एवं दृष्टिकोणों को अपनाती है। उन्होंने इस क्षेत्र में स्थित विश्व के प्रथम विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय का उल्लेख करते हुए बताया कि इस विश्वविद्यालय में विश्वभर से विद्वान अध्ययन के लिए आते थे।
उन्होंने दस सिख गुरुओं की शिक्षाओं और बलिदानों, तथा ‘इक ओंकार’ के सार्वभौमिक संदेश को रेखांकित किया। उन्होंने स्वामी विवेकानंद को उद्धृत करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा मानवता की सबसे बड़ी धरोहरों में से हैं। श्री नरेंद्र जी ने एक ऐसे शिक्षा तंत्र की आवश्यकता पर बल दिया जो राष्ट्रवादी मूल्यों और सांस्कृतिक गौरव से ओत-प्रोत हो, और युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में अपने पूर्वजों के बलिदानों की स्मृति से जोड़ सके तथा उनमे देश भक्ति की अलख जगा सके।
वहीं, मुख्य वक्ता डॉ. वरिंदर गर्ग ने अपने उद्बोधन में पंजाब को सप्त सिंधु क्षेत्र का अभिन्न हिस्सा बताते हुए इसे भारतीय सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और राखीगढ़ी जैसे पुरातात्विक स्थलों का उल्लेख करते हुए भारतीय संस्कृति की प्राचीनता और निरंतरता को प्रमाणित किया। उन्होंने 19वीं सदी के जर्मन विद्वान मैक्स मूलर द्वारा प्रस्तुत आर्य आक्रमण सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहा कि यह सिद्धांत पुरातात्विक साक्ष्यों और आनुवंशिक तथ्यों की अनदेखी करता है और औपनिवेशिक पूर्वाग्रह से प्रेरित है। उन्होंने वैदिक साहित्य और पुरातात्विक प्रमाणों के आलोक में भारतीय इतिहास के पुनः विश्लेषण की आवश्यकता जताई।
कुलपति प्रो. राघवेंद्र प्रसाद तिवारी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में सप्त सिंधु क्षेत्र के भारतीय सभ्यता में बौद्धिक, सांस्कृतिक और सामाजिक योगदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र ने वैज्ञानिक ज्ञान के संग्रह और संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आज भी मानव जीवन के अनेक पक्षों को प्रभावित करता है। प्रो. तिवारी ने बौद्धिक परंपरा को आगे बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने एंगस मैडिसन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि भारत की वैश्विक जीडीपी में हिस्सेदारी 1700 ईस्वी में 24% थी, जो मुगलों और ब्रिटिश शासन के काल में घटकर 1947 में मात्र 3% रह गई। उन्होंने इस प्राचीन क्षेत्र की खोई हुई बौद्धिक और आर्थिक शक्ति को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत गणमान्य अतिथियों ने श्री नरिंदर बस्सी और डॉ. संजीव कुमार द्वारा लिखित पुस्तकों का विमोचन भी किया।
कार्यक्रम का शुभारंभ इतिहास विभागाध्यक्ष डॉ. संजीव कुमार के स्वागत भाषण से हुआ। अंग्रेजी विभागाध्यक्ष डॉ. विपन पाल सिंह ने संगोष्ठी का थीम प्रस्तुत किया और अंत में डॉ. हरीत मीणा ने औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया। विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षक, शोधार्थी और छात्र-छात्राओं ने इस संगोष्ठी में उत्साहपूर्वक भाग लिया।
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