संपादकीय डॉ. अनु कुमार सूक्ष्मजीवविज्ञानी एवं सह-प्राध्यापक चंडीगढ़ विश्वविद्यालय, मोहाली, पंजाब
संपादकीय डॉ. अनु कुमार सूक्ष्मजीवविज्ञानी एवं सह-प्राध्यापक चंडीगढ़ विश्वविद्यालय, मोहाली, पंजाब
चमकते-दमकते शहरी भारत की ऊँची इमारतों के नीचे एक गंभीर और अनदेखा संकट चुपचाप बढ़ रहा है — भारत अपने ही कचरे में डूबता जा रहा है। हर बीतते दिन के साथ यह समस्या और भी जटिल होती जा रही है — और दुर्भाग्यवश, नज़रअंदाज़ भी।
भारत प्रतिदिन 1.6 लाख टन से अधिक ठोस कचरा उत्पन्न करता है, जिसमें से 60% से भी अधिक कचरे का न तो निपटान होता है, न ही पुनर्चक्रण। यह कचरा लैंडफिल में जमा हो रहा है, भूजल को दूषित कर रहा है, नदियों को रोक रहा है, और बीमारियों को न्योता दे रहा है। लेकिन इससे भी बड़ा दुःखद पहलू यह है कि हम सिर्फ कचरा नहीं फेंक रहे — हम एक अवसर गंवा रहे हैं।
जी हाँ, कचरा कोई बोझ नहीं, बल्कि एक छुपा हुआ संसाधन है। रसोई का जैविक कचरा खाद बन सकता है, प्लास्टिक ईंधन में बदल सकता है। मेरे शोध में यह स्पष्ट हुआ है कि सूक्ष्मजीव प्रौद्योगिकी और नैनोमैटेरियल्स की सहायता से कठिन अपघटनीय प्लास्टिक को भी कुछ ही महीनों में जैविक रूप से तोड़ा जा सकता है — जो सामान्यतः सैकड़ों वर्ष लेता है।
तकनीक मौजूद है, समाधान हमारे पास है — कमी है तो केवल इच्छाशक्ति की।
हमें अपने कचरे के प्रति सोच को बदलना होगा। घरों में गीले और सूखे कचरे को अलग करना केवल नागरिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पर्यावरणीय राष्ट्रभक्ति है। हमारे कचरा बीनने वाले साथी, जो इस समस्या से जूझ रहे हैं, उन्हें सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए। स्कूलों में अपशिष्ट साक्षरता पढ़ाई जानी चाहिए। नगरपालिकाओं को स्मार्ट वेस्ट हब, कम्पोस्ट संयंत्र और वेस्ट-टू-एनर्जी मॉडल अपनाने होंगे।
इंदौर ने इस बदलाव को कर दिखाया — गंदगी से स्वच्छता तक का सफर सामुदायिक जागरूकता से तय किया गया। केरल का विकेन्द्रीकृत कंपोस्ट मॉडल सफल है। ये अपवाद नहीं हैं, बल्कि भारत की स्वच्छ भविष्य की रूपरेखा हैं।
यह सिर्फ सफाई का मुद्दा नहीं है — यह स्वास्थ्य, जलवायु और अर्थव्यवस्था से जुड़ा संकट है — और साथ ही एक अवसर है कि भारत सर्कुलर इकोनॉमी में दुनिया का नेतृत्व करे।
अब और अनदेखी नहीं चलेगी। अब ज़रूरत है — कार्य की, जागरूकता की और एक नए नजरिए की।
कचरा अंत नहीं है — यह एक हरित और उज्जवल भविष्य की शुरुआत है।
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